बुधवार, 24 मार्च 2010

हिंसा की राजनीति बनाम जनांदोलन.......................

राजकीय हिंसा के अन्यायपूर्ण होने को लेकर जिनके मन में कोई शंका नहीं है, वे माओवादी या ‘जनता’की हिंसा के प्रश्न पर हिचकिचा जाते हैं.ऐसा इसलिए नहीं होता कि वे बेईमान हैं, बल्कि इस वजह से कि हिंसा को वैध राजनीतिक तरीका मानने को लेकर चली आ रही बहस अभी ख़त्म नहीं हुई है. यह अलग बात है कि भगत सिंह जैसे बौद्धिक क्रांतिकारी पिछली सदी के पूर्वार्ध में ही यह समझ गए थे कि जन आंदोलनों का कोई विकल्प नहीं है. जनता की गोलबंदी,न कि हथियारबंद दस्तों के ज़रिये गुर्रिल्ला युद्ध,यह समझ भगत सिंह की बन रही थी.क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा में उन्होंने लिखा, “बम का रास्ता १९०५ से चला आ रहा है और क्रान्तिकारी भारत पर यह एक दर्दनाक टिप्पणी है….आतंकवाद हमारे समाज में क्रांतिकारी चिंतन के पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है या एक पछतावा.इसी तरह यह अपनी असफलता का स्वीकार भी है. शुरू-शुरू में इसका कुछ लाभ था.इसने राजनीति को आमूल बदल दिया. नवयुवक बुद्धिजीवियों की सोच को चमकाया,आत्मत्याग की भावना को ज्वलंत रूप दिया और दुनिया व अपने दुश्मनों के सामने अपने आन्दोलन की सच्चाई को ज़ाहिर करने का अवसर मिला. लेकिन यह स्वयं में पर्याप्त नहीं है. सभी देशों में इसका इतिहास असफलता का इतिहास है…. . इसकी पराजय के बीज इसके भीतर ही हैं.” इस उद्धरण से यह न समझ लिया जाए कि भगत सिंह ने इस रास्ते से अपने आप को एकदम काट लिया था,पर यह साफ़ है कि वे बड़ी शिद्दत से यह महसूस करने लगे थे कि बिना सामूहिक कार्रवाई के सफलता प्राप्त करना संभव नहीं.भगत सिंह के ये वाक्य मानीखेज और दिलचस्प है:”विशेषतः निराशा के समय आतंकवादी तरीका हमारे प्रचार-प्रसार में सहायक हो सकता है,लेकिन यह पटाखेबाजी के सिवाय कुछ है नहीं.”वे स्पष्टता से लिखते है, “क्रांतिकारी को निरर्थक आतंकवादी कार्रवाईयो और व्यतिगत आत्मबलिदान के दूषित चक्र में न डाला जाए. सभी के लिए उत्साहवर्द्धक आदर्श,उद्देश्य के लिए जीना -और वह भी लाभदायक तरीके से योग्य रूप में जीना – होना चाहिए.”


गांधी को कभी क्रांतिकारी नहीं कहा जाता, हालांकि राजनीतिक रूप से प्रतिरोध का एक बिलकुल नया और लोकतांत्रिक तरीका उन्होंने ही सुझाया.जो क्रांतिकारी माने जाते है, वे तो हथियारों पर भरोसे की जमाने से चली आ रही समझ की लीक पर ही चलते रहे थे और राजनीतिक चिंतन में, विशेषकर संगठन को लेकर उन्होंने कोई नया नुक्ता मानव चिंतन में नहीं जोड़ा. भगत सिंह गांधी को ध्यान से समझने की कोशिश कर रहे थे और उनसे अनेक असहमतियों के बावजूद यह कहने को तैयार थे कि चूंकि गांधीवाद सामूहिक कारवाई पर निभर है, वह क्रांतिकारी विचार के कुछ नजदीक पहुँचने का यत्न करता है.

भगत सिंह स्वेच्छा से एक ‘आतंकवादी’ कार्रवाई में भाग लेकर उसकी जिम्मेदारी लेने के साहस के चलते ही पकड़े गए और उसके बाद फांसी का इंतजार जेल में करते हुए सोचते और लिखते रहे. वे यह जानते थे कि इन विचारों के कारण गलतफहमी हो सकती है, “इस विषय पर मेरे विचारों को गलत रंग देने की बहुत अधिक सम्भावना है. ऊपरी तौर पर मैने एक आतंकवादी की तरह काम किया है. लेकिन मैं आतंकवादी नहीं हूं.मैं एक क्रांतिकारी हूं, जिसके दीर्घ्कालीन कार्यक्रम सम्बन्धी ठोस व विशिष्ट विचार हैं… .. ‘शस्त्रों के साथी’ मेरे कुछ साथी मुझे रामप्रसाद बिस्मिल की तरह इस बात के लिए दोषी ठहराएंगे कि फांसी की कोठरी में रह कर मेरे भीतर कुछ प्रतिक्रिया पैदा हुई है.”



हथियारबन्द गतिविधि या हिंसा ऊपर से कठिन प्रतीत होती है लेकिन भगत सिंह को यह पता था कि इसका रिश्ता भावुकता और उत्तेजना से ज़्यादा है. जनता की गोलबन्दी एक बिल्कुल अलग मसला है, “यदि आप सोचते हैं कि किसानों और मजदूरों को सक्रिय हिस्सेदारी के लिए आप मना लेंगे तो मैं बताना चाहता हूं वे किसी प्रकार की भावुक बातों से वे बेवकूफ नहीं बनाए जा सकते.वे साफ- साफ पूछेंगे कि आपकी क्रांति से क्या लाभ होगा? वह क्रांति जिसके लिए आप उनसे बलिदान की मांग कर रहे हैं.”



हाथियारों के सहारे के बिना जनता के हित सवाल पर उसी की गोलबन्दी काफी कठिन काम है और वह लम्बा और नीरस रास्ता है. यह “तेज़, भडकीला काम” नहीं, इसके लिए परिपक्वता और धीरज की आवश्यकता है, जैसा भगत सिंह ने इसी दस्तावेज में आगे लिखा.



हिंसा में यकीन रखने वाले दल क्या यह कहना चाहेंगे कि आदिवासियों को जंगल की उनकी ज़मीन पर हक़ दिलाने का कानून हिंसक संघर्ष के रास्ते हासिल किया गया? अधूरा ही सही, पर बच्चों की तालीम का हक़ भी क्या इसी रास्ते , या इसके भय से राज्य ने देना स्वीकार किया? सूचना का अधिकार किस हिंसक संघर्ष से प्राप्त किया गया? आज से बीस साल पहले औरतें जिस हाल में थीं, उससे बहुत कुछ आज़ाद होकर वे अगर सर उठा कर अपनी शहरियत और व्यक्तिमत्ता का दावा पेश ही नहीं करतीं, बल्कि उसे ठोस रूप में मह्सूस और इस्तेमाल भी करती हैं तो यह किसी भूमिगत, हिंसक कार्रवाई से नहीं हासिल किया गया. ये बडे दीर्घकालीन संघर्ष रहे हैं और इनमें भी कुरबानियां दी गई हैं. यह कोई नहीं कहना चाहता कि भारत में जनता के हितों को सबके ऊपर प्राथमिकता देने वाला शासन है. यह एक अधूरा लोकतंत्र है लेकिन मानवता का इतिहास किसी भी पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था का उदाहरण प्रस्तुत नहीं करता. लोकतंत्र का दायरा धीरे-धीरे ही बढाया जा सकता है. जनता के हित जनता की कीमत पर हसिल नहीं किए जा सकते. आज जीयी जा रही ज़िंदगी, भले ही वह लड्खडाती हुई क्यों न हो, इसलिए कुर्बान नहीं की जा सकती कि कल एक पूर्णतर जीवन का वादा साकार होने वाला है. जिन समाजों ने “पूर्णतम” के वादे पर अपना आज निछावर कर दिया, उन्हें बड़ी भयानक अनुभव झेलने पडे और उन अनुभवों की वजह से समानता के पूरा विचार ही खतरे में पड गया. ऐसा लगने लगा मानो मानव समाज उसके काबिल ही नहीं.



सवाल सिर्फ माओवादी हिंसा का नहीं. जो मार्क्सवादी दल उन्हें हिंसा का रास्ता छोड्ने को कह रहा है, उसने साल भी नहीं बीता है, खुद इसे एक जायज़ राजनीतिक अस्त्र बताया था. जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसे घातक मानता है, वह अपना वार्षिक उत्सव हथियारों की पूजा करके ही मना पाता है. भगत सिंह के शब्दों में जो ‘शस्त्रों के साथी’ हैं वे अगर बर्तोल्त ब्रेख्त को याद करें और दुनिया की सबसे ताकतवर चीज़,यानी इंसानी दिमाग पर भरोसा करें तो शायद वे एक अधिक लोकतांत्रिक दुनिया की ओर बढ्ने में हमारी मदद करेंगे , जो यह तय है , किसी बडे धमाके के गर्भ सी नहीं पैदा होगी......................................

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